एक निष्कलंक प्रेम का जीवित अवतार थे साधु टीएल. वासवानीजी – Chhotikashi.com

एक निष्कलंक प्रेम का जीवित अवतार थे साधु टीएल. वासवानीजी

                            आध्यात्मिक मार्गदर्शक साधु टीएल. वासवानीजी के 25 नवंबर को जन्म दिवस पर विशेष   पुणे। दुनियाभर में हजारों लोगों के लिए साधु टी.एल. वासवानी जी उनके समस्त जीवन के प्रति श्रद्धा का पर्याय है। वास्तव में, वह एक निष्कलंक प्रेम का जीवित अवतार थे, जिसकी कोई सीमा नहीं थी। एक सर्वव्यापी प्रेम जिसमें समस्त मानव जाति, प्राणी और सारी सृष्टि शामिल थी। हैदराबाद के सिंध प्रांत में 25 नवंबर 1879 को जन्मे साधु वासवानीजी का जीवन बहुत कम उम्र से ही दिव्यता की चिंगारी से भर गया था। एक शानदार अकादमिक करियर के बाद एम.ए. की डिग्री हासिल की। इसके बाद उनका स्वाभाविक झुकाव एक फकीर के जीवन का अनुसरण करने में था। लेकिन उनकी मॉं की इच्छा थी, कि वह सांसारिक करियर बनायें और पैसा कमायें। इसलिए उन्होंने उनकी इच्छा के आगे समर्पण कर दिया और शिक्षण करियर अपनाकर देश के प्रतिष्ठित कॉलेजों में प्रोफेसर और प्रिंसिपल बन गए। उनके 30 साल की उम्र में, वह वेल्ट कांग्रेस, विश्व धर्म कांग्रेस में भारत के प्रतिनिधियों में से एक के रूप में बर्लिन गए। वहां उनके भाषण और उसके बाद युरोप के विभिन्न हिस्सों में उनके व्याख्यानों ने भारतीय आदर्शों में गहरी रुचि जगाई और कई लोगों को अपने साथ जोड़ा। साधु वासवानी उस समय के थे जब देशभक्ति दास्यता से मुक्ति के संघर्ष के रूप में प्रकट हुई थी। वह एक स्वतंत्रता सेनानी थे और उन्होंने सत्याग्रह आंदोलन में महात्मा गांधी के करिबी सहयोगी के रूप में काम किया था। उन्होंने कई किताबें लिखीं, जिन्होंने विशेष रूप से देश के युवाओं को मातृभूमि की समर्पित सेवा में खुद को पेश करने के लिए प्रेरित किया। इनमें बिल्डर्स ऑफ टुमॉरो, माय मदरलॅंड, इंडिया अरिसेन, युथ अँड द कमिंग रेनेसॉं, युथ अँड द नेशन आणि अवेक, यंग इंडिया! इन जैसी किताबें समाविष्ट हैं। हालॉंकि, बाद में साधु वासवानीजी ने सक्रिय राजनीति क्षेत्र छोड दिया और अपना ध्यान शिक्षा की ओर लगाया। साथ ही इस बात पर जोर दिया कि चरित्र निर्माण ही राष्ट्र निर्माण है। इस दृष्टि से, उन्होंने शिक्षा में मीरा आंदोलन शुरू किया, जिसका मुख्यालय आज महाराष्ट्र के पुणे में है। इसका उद्देश्य छात्रों को आधुनिक जीवन की महत्वपूर्ण सच्चाइयों से समृद्ध करना है। साथ ही उन्हें भारतीय आदर्श और भारतीय संस्कृति का प्रेमी बनाना है। इस प्रकार के शैक्षणिक संस्थानों में इस बात पर जोर दिया जाता है कि शिक्षा आत्मा की चीज है और सभी ज्ञान का अंत गरिबों और दीन, दुखी और पीड़ितों की सेवा-सेवा है। भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के शब्दों में, "साधु वासवानीजी का जीवन निष्पक्ष सेवा, आध्यात्मिक रोशनी और हम सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत की गाथा थी। उन्होंने दिन-ब-दिन काम किया, अपने लिए कुछ भी नहीं चाहा। केवल गरीबों, अकेले और भटके हुए लोगों की सेवा करने के अवसरों की तलाश की। महान भगवान सजे हुए मंदिरों में नहीं, बल्कि झोपड़ियों में गरीबों के आंसू पोंछ रहे हैं और नए युग के लिए अपनी नई गीता गा रहे हैं!' साधु वासवानीजी एक बहुआयामी लेखक थे, जिन्होंने अंग्रेजी और सिंधी में कई सैकड़ों पुस्तकों की निर्मिती की। वह जन्मत: रुप से ओजस्वी वक्ता थे। जब वह बोलते थे, तो हॉल उनके शब्दों के समृद्ध और उनके हृदय के संगीत से भर जाता था। वह एक कवि, एक रहस्यवादी, एक ऋषि थे और, आयरिश कवि डॉ. कजिन्स के शब्दों में, वह एक विचारक और आत्मा की गहरी सच्चाइयों के प्रकटकर्ता थे। अनेक में एक की सुंदरता को देखकर, साधु वासवानीजी को सभी धर्मों की ओर आकर्षित महसूस हुआ क्योंकि उन्होंने उन्हें एक ईश्वर के विभिन्न मार्गों के रूप में देखा। उन्होंने कहा, "ऐसे बहुत से लोग हैं जो एक समय में केवल एक ही चीज पर विश्वास कर सकते हैं। मैं इस तरह बना हूं कि मैं अनेक में आनंदित रहूं और अनेक में एक की सुंदरता को देख सकूं । इसलिए अनेक धर्मों के प्रति मेरा लगाव है। उन सभी में मैं एक ही आत्मा के रहस्यों को देखता हूं । साधु वासवानीजी के हृदय में समस्त जीवन के प्रति श्रद्धा की भावना गहराई तक व्याप्त थी। उन्होंने जो भी छोटा-मोटा काम किया वह दूरदृष्टी से प्रेरित था। भोजन के लिए प्राणीमात्र पर होने वाली क्रूरता को देखकर उनका हृदय पसीज जाता था। "मेरा सिर ले लो, लेकिन प्रार्थना करो कि सारा प्राणी वध बंद हो जाए!' सभी जीवन के प्रति श्रद्धा की आवश्यकता की यह गहरी जागरूकता, चाहे वह किसी भी रूप में प्रकट हो, साधु वासवानीजी की शिक्षाओं का एक बहुत ही आवश्यक हिस्सा है। और इसे अंतर्राष्ट्रीय मांस रहित दिवस अर्थात शाकाहारी दिवस अभियान द्वारा प्रचारित किया गया है। पिछले कई वर्षों से, सैकड़ों हजारों भक्त 25 नवंबर, साधु वासवानीजी के जन्मदिन को मांसरहित दिवस और पशु अधिकार दिवस के रूप में मनाया जा रहा है, जो सभी जीवन के लिए सम्मान के आदर्श के प्रति अपनी साझा प्रतिबद्धता व्यक्त करता है। साधु वासवानीजी ने 16 जनवरी, 1966 को 87 वर्ष की आयु में अपना प्राण त्याग दिया। जिन गरिबों की उन्होंने इतने प्रेम से देखभाल की, वे उन्हें सबसे अधिक याद करते हैं। वे आज भी पुणे के ग्लोबल मुख्यालय स्थित मिशन परिसर में उनकी पवित्र समाधि पर श्रद्धांजलि अर्पित करने आते हैं। अपने अधिकांश भक्तों के लिए, साधु वासवानीजी अभी भी मिशन के हर कोने में और दादा जे. पी. वासवानीजी द्वारा किए गए कार्यों में जीवित हैं, जिन्हें साधू वासवानीजी ने अपनी ज्योति सौंपी थी।


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