संस्कार ही जीवन की संपदा : साध्वीश्री भव्यगुणाश्रीजी
पुणे। श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ श्री मुनिसुव्रत स्वामी राजेंद्र सूरि जिन - गुरुमंदिर ट्रस्ट के तत्वावधान में आयोजित चातुर्मास में विराजित समता साधिका साध्वीश्री भव्यगुणाश्रीजी ने कहा कि खदान से निकलते हुए सोने को देखा, उसमें चमक नहीं थी। वह अग्नि में तपा और चमकदार बन गया। आदमी भी जन्म के साथ ही महान नहीं होता। वह भी संस्कारों की अग्नि में तपता है और तब महान बनता है। संस्कार जीवन की संपदा है, हमारा जीवन सुंदर और संपन्न होता है। उन्होंने कहा कि अगर आप कुछ सोच सकते हैं तो यकीन मानिए आप उसे कर भी सकते हैं। मधुर भाषी साध्वीश्री शीतलगुणाश्रीजी ने कहा कि जिंदगी को स्वर्ग सरीखे आनंद और मिठासभरी बनाना चाहते हो तो अपने जीवन से पांच दोषों को हमेशा के लिए समाप्त कर दो। वे हैं- स्वभाव में पलने वाला गुस्सा, भीतर में पलने वाला अहंकार-अभिमान या ईगो, छल-प्रपंच या माया, लोभ और ईर्ष्या। अभिमान को हटाने विनम्रता को अपना लो। माया को हटाने मित्रता को अपना लो। लोभ को हटाने संतोष को अपना लो। संतोष से बड़ा सुख और धन दुनिया में और कुछ होता नहीं है। ईर्ष्या को हटाने सबको अपना मान लो। औरों की खुशी में खुश होना और औरों के दुख को बांटना सीख लो।