वर्तमान परिपेक्ष में जैन दीक्षा ; क्या समाज के लिए हितकारी है… ??
सभी को जयजिनेंद्र..
इतनी जो दीक्षाएं जैन समाज में हो रही है उसके बारे में कोई विरोध करने की सोच भी नहीं सकता, मगर वह समय 20 साल पहले का समय बहुत अलग था। गांव में हम लोग रहते थे गांव भरे हुए रहते थे। पूरी सात्विकता थी। कोई मीडिया टीवी और मोबाइल नही थे। आज 80 फीसदी जैन देशावर में आ गए, फैमिली छोटी हो गई। एक बच्चे या दो बच्चे पर आ गए। उसमें भी लड़कियों की कमी और इसी तरह अगर दीक्षाएं 80 फीसदी लड़कियां ले रही है 20 फीसदी लड़के, तो समाज का सतूंलन बिगड़ना तय है। और बिगड़ भी रहा है पहले से ही गैप है और गैप बढ़ जाएगा तो हमारे समाज में बाद में धीरे-धीरे लिंगायत, पंजाबी, मराठी, समाज की लडकियां आयेगी तो, हमारा धर्म जो इतने सालों से मजबूती से टिका हुआ है, उसका हाल या हश्र कैसा होगा ? यह चिंता का विषय है। ऐसे में जैन शासन के अनुयायियों में शिथिलता और बढ़ जाएगी जिससे त्याग, तप, आराधना से जुड़ी संस्कृति का रूप भी बदलता नजर आएगा। अंततः इस सबके लिए कौन जिम्मेदार होगा, इसका कभी चिंतन मंथन किया है ? समाज का संतुलन न बिगड़े यह, गुरु भगवंतों की जवाबदारी नहीं है क्या??
30 साल के लड़के समाज में खड़े हैं उनका क्या होगा ? एक तरफ तो कहते हैं जैन समाज के लोग संख्या बढ़ाओ और एक तरफ दीक्षाओं का जैसे मेला लगा हो ! दीक्षा दानेश्वरी, हमने इतनी दीक्षा कराई, हमने उतनी दीक्षा कराई.. जैसे लगता है कि सबको दीक्षा दानेश्वरी पदवी हासिल करनी हो। शायद इस कंपटीशन में समाज को कहां तो घाटा हो रहा है ऐसा बहुत से लोगों को लगता है। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि धन के बल पर गरीब व असहाय परिवारों से लोभ, लालच व धन के बल पर खरीद फरोख्त व बोलियां लगाकर दीक्षाएं दी जा रही है। मेरा मानना है कि इसके बारे में गुरुभगवंत भी और श्रावक भी चिंतन करें।
आज क्या हालत है आप देख सकते हैं कि चातुर्मास प्रवचन में सुबह 11:00 बजे व्याख्यान खत्म होता है, उसके बाद कुछ लोग या ट्रस्टी गुरुभगंवतों को मिलते हैं, और पूछते हैं कि कुछ आपको चाहिये या कुछ काम है। बस एक 15 या 20 मिनट की बात होती है, उसके बाद आप देख लो कि कितने लोग गुरुभगंवतों, के दर्शन करने आते हैं या मिलने आते हैं या कुछ धर्मचर्चा के लिए आते हैं, नहीं के बराबर ..!आजकल उपाश्रय में साधुभगवंत और साध्वी भगवंत ज्यादा होते है, जबकि श्रावक बहुत ही कम आते हैं। ठीक है, इतने साधु साध्वीजी होने के बावजूद इतनी नए-नए दीक्षा होने के बावजूद आज जैन समाज कुरीतियों में डूबता जा रहा है। 80 फीसदी सामाजिक कार्यक्रमों में जैन सिद्धांतों की धज्जियां उडाई जाती है। कुरीतियां या सिद्धांतों की धज्जियां उड़ाना, इतने गुरुभगवंत होने के बावजूद उनको रोक नहीं सकते हैं तो, फिर इतनी दीक्षाएं क्यों ? कभी-कभी लगता है कि समाज को इन दीक्षाओं से धर्म की क्या जाओजलाली हो रही है।
भले ही भविष्य में पैसे के बलबूते पर गुरु भगवंतों की सेवा व्यवस्था कर देंगे। मगर इतनी संख्या होगी तो रिस्पेक्ट कहां से लाओगे।आज इतने साधु भगवंतों का एक्सीडेंट या कोई अन्य अनहोनी घटना हो जाती है तो जल्दी से एफआईआर दखल करने के लिए बहुत से संघ आगे भी नहीं आते हैं। इस तरह गुरुभगवंत जब गोचरी लेने जाते हैं तो, बहुत जगह आजकल संघ का स्टाफ साथ में भेजते हैं कैसा होगा और यह हकीकत है। हम सभी मन में जानते हैं, बोलने की हिम्मत कोई करता नहीं है। जब हम पर्सनल बात करते हैं तो सभी यही बोल रहे क्या दीक्षा एक मजाक हो रही है..?
छोटे-छोटे बच्चों की दीक्षाएं और भी तॉसदीकारी ही नहीं, बल्कि विस्मयकारी भी हुई जा रही है। इस तरह बाल दीक्षाएं हरगीज नहीं होनी चाहिए। भले ही हम कुछ साल पहले कोर्ट में जाकर, केस जीत के आ गए। 90 फीसदी जैन युवा पीढ़ी को यह मान्य नहीं है, इसलिए युवा पीढ़ी में से ही किसी को आवाज उठानी होगी। ऐसे ही दीक्षा दिलाएंगे तो क्वांटिटी बढ़ जाएगी, मगर क्वालिटी नहीं। कुल मिलाकर
हर काम में नियम होते हैं, व्यापार हो, व्यवहार हो, सांसारिक काम हो, तप तपस्या हो, तो दीक्षा लेने वालों के लिए हर हालत में नियमावली होनी चाहिए। भले ही अपने-अपने संप्रदाय में नियमावली बनाये।
यानि दीक्षार्थी कम से कम बीकॉम यानी ग्रेजुएट हो। दीक्षार्थी 5 साल समाज की कोई भी संस्था यानी हॉस्पिटल हो या स्कूल हो वहां पर अपनी सेवाएं प्रदान करें और ग्रामीण भाग में या जैनेतर ऐरिया में जाकर स्कूलों, कॉलेज में जैनधर्म का प्रचार करे। अहिंसा धर्म जियो और जीने दो, अपरिग्रह, अनेकांतवाद, रात्रि भोजन के बारे में जागृति का काम करे। ताकि धर्म का प्रचार भी हो जाएगा और दीक्षार्थी को भी दुनियादारी का नॉलेज मिलता रहेगा।
5 साल में दीक्षार्थी हिंदुस्तान के सभी संप्रदाय के गुरुओं को, यानी हिंदू, ईसाई, मुस्लिम, सिख उन सभी के धर्म गुरुओं से मिले उनके धर्म की क्या व्यवस्था है, वह किस तरह उनके अनुयायियों को उपदेश देते हैं, कैसे धर्म का प्रचार करते हैं, क्या-क्या नियम अपनाते हैं इसकी पूरी स्टडी करके समाज के सामने रखें।दीक्षार्थी को दुनिया का नॉलेज होना आज के जमाने के हिसाब से जरूरी हो गया है। दुनिया में कितने देश है। कौन से देश में कौन सा धर्म है उनका क्या सिस्टम है। बड़े-बड़े देशों की व्यापारिक पॉलिसी क्या है, हमारे देश की इकोनॉमी क्या है, भारत में जैन छोड़कर कितने संप्रदाय है उनकी मान्यता क्या है। उनसे युवा पीढ़ी कितनी जुड़ी है या नहीं यानी पूरा नॉलेज हो उसकी एग्जाम भी हो। खुद के आत्म कल्याण के लिए और समाज के उत्थान के लिए उनकी क्या योजनायें है। और जैनेतर लोगों को कैसे जैन धर्म की और खींच सकते हैं, क्योंकि आजकल की पीढ़ी को दुनिया के नॉलेज की बात करते-करते ही आप धर्म के रास्ते पर ला सकते हो और अगर आपको दुनियादारी का नॉलेज पूरा नहीं रहेगा तो उपाश्रय अथवा स्थानक आदि में भीड़ जो, आज है, वह भी धीरे-धीरे कम होती जाएगी। आप कितने भी मंदिर, कितने भी तीर्थ और कितने भी दीक्षाएं दिला दो जब तक जमाने के हिसाब से आपका नॉलेज नहीं होगा तो 10 साल के बाद और उपाश्रय खाली मिलेंगे। फिर गुरुभगवंत और उपाश्रय और उनके लिए भोजनशाला यह व्यवस्था संघ पैसे के बलबूते पर कर देगा। मगर संख्या जो आज मंदिरों में या उपाश्रय में आती है वह ओर कम होती जाएगी।
स्वामीनारायण संप्रदाय वाले, दीक्षा जिसको लेनी है, उसको दुनिया का नॉलेज, देश की परिस्थिति, फॉरेन पॉलिसी, सभी धर्मो का नॉलेज, कौन सा धर्म इतना जल्दी दुनियाभर में कैसे फैला। दुनिया में अपना धर्म कहां, कमजोर हो रहा है। यानी दुनियादारी का नॉलेज दिलाते हैं फिर दीक्षा लेने की इच्छा हो तो दीक्षा देते हैं। यह हकीकत है। स्वामीनारायण संप्रदाय में 21 वर्ष पूर्व दीक्षा अंगीकार करने का प्रावधान नहीं है। स्वामीनारायण, इस्कॉन, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी यह सभी संप्रदाय 100, 150 साल के आसपास बने होने के बावजूद उनके करोड़ों में अनुयाई बन रहे हैं। स्वामीनारायण, इस्कॉन, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी के साधु जब बात करते हैं तो हजारों की भीड़ बिन बुलाए आ जाती है, मगर हमारे यहां पर इतने साधु भगवंत होने के बाद भी, इतना प्राचीन धर्म होने के बावजूद कितने अनुयाई बने, एक प्रश्न चिन्ह है .? कहां तो सिस्टम में गड़बड़ है ! 18 साल के बाद ही और कम से कम से कम बीकॉम पास होने के बाद, दुनियादारी का थोड़ा नॉलेज होने के बाद ही अगर दीक्षा लेते है, तो दीक्षा दिलानी चाहिए इसका भी चिंतन होना चाहिए. कहां तो हमारे में कमी है या सिस्टम में गडबड है। 80 फीसदी दीक्षाओं में इतना आडंबर हो रहा है कि कभी-कभी लगता है, दीक्षा के निमित्त भी गुरु भगंवत अपनी वीआयपीनेस बता रहे हैं। अभी अभी दीक्षार्थी दीक्षा स्थान पर ऐसे आते हैं जैसे रैंप पर कोई शो चल रहा है। लाखों रुपए सिर्फ दीक्षा के पहले के ड्रेस पर खर्च हो जाते हैं और बाद में वह ड्रेस कोई काम नहीं आते हैं। नई पीढ़ी उनकी वजह से धर्म से दूर होती जा रही है। यह भी चिंता चिंतन का विषय है। बहुत सी दीक्षाऐं संख्या बढ़ाने के नाम पर हो रही है। इसलिए समाज के युवाओं को जागना पड़ेगा जरा गहराई से विचार करो, ऐसे ही दीक्षा होती रही तो समाज की क्या हालत होगी। विरोध करना ही होगा, इसलिए समाज को समाज के आगेवानो को आचार्य भगवंतों को इस विषय पर चिंतन कर दीक्षा के लिए कुछ नियमावली के बारे में जरूर विचार करना होगा। नियमों के हिसाब से दीक्षा देनी होगी तो ही दीक्षा का महत्व रहेगा। जब मतदान 18 साल के बाद, ड्राइविंग लाइसेंस 18 साल के बाद, शादी 21 साल के बाद, बाल मजदूरी पर रोक, बाल विवाह पर रोक, फिर दीक्षा पर रोक क्यों नहीं..? हमारे गच्छादीपतियों को विचार करना ही होगा। अगर दीक्षार्थियों का भविष्य में समाज से रिस्पेक्ट चाहते हो तो और मां-बाप के लिखित परमिशन के बिना दीक्षा दिलाना, यह सरकार की तरफ से इस पर कायदा होना चाहिए। बाल दीक्षा पर भी सरकार की तरफ से भी रोक होनी चाहिए, जिसके लिए हमें आवाज उठानी होगी। अफसोस इस बात का नहीं है कि कहीं कहीं धर्म का भी धंधा हो रहा है, अफसोस इस बात का है कि समझदार इंसान भी अंधा हो रहा है।
–बाबूभाई मेहता
सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ता, बेंगलूरु/सोलापुर